Ashtvinay Prakashan

Dharmchakra Pravartan Kitani Bar Kiya ja Sakta Hain?

धर्मचक्र प्रवर्तन  कितनी बार किया जा सकता है?

  बुद्ध ने सारनाथ से अपना धर्मप्रचार कार्यारंभ, करते हुये सिंहनाद किया था जिसे ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ कहते है. इस विषय में किसी की भी असहमति नहीं होने के बावजूद बाबासाहब ने दिलाई धर्मविनय दीक्षा को भी धर्मचक्र प्रवर्तन कहकर संबोधित करना उचित कैसे ? बुद्ध का भी धर्मचक्र प्रवर्तन और बाबासाहब का भी धर्मचक्र प्रवर्तन? धर्मचक्र का प्रवर्तन कितनी बार किया जा सकता है ? और धर्मचक्र का प्रवर्तन कौन कर सकता है ? ऐसा स्वाभाविक प्रश्न इस संबंध में उभरकर आता है. प्रबुद्ध भारत साप्ताहिक के 29 सितंबर 1956 के अंक मे धम्मचक्र के नव-प्रवर्तन के लिये चलो नागपुर, ऐसी मुख्य शीर्षक की खबर प्रथम पृष्ठपर ही छपी थी.

        ‘प्रबुद्ध भारतके संपादक मंडल में बाबासाहेब चेअरमन थे, तब भी उन्हे पूछकर वो शीर्षक डाला नही था. यह बात दृढता के साथ कही जा सकती है. क्योंकि इसकी सच्चाई उस खबर के आगे कई वाक्यो में होती है वह इस प्रकार है. “प्रबुद्ध भारत के संपादको को एक विशेष संदेश डॉ. बाबासाहेब ने भेज कर बौद्ध धर्म स्वीकार करने का दिन, तिथी और समय बताया है”. इसका मतलब तत्कालीन सहसंपादक मुकुंदराव आ. आंबेडकर और उनके सहयोगियों ने ‘नव-प्रवर्तन’ यह शब्द उपयोग में लाया.

       27-10-1956 का ‘प्रबुद्ध भारत’ का विशेषांक भी ‘आंबेडकर दीक्षा विशेषांक’ इस नाम से प्रकाशित किया गया था. धर्मचक्र प्रवर्तन विशेषांक इस नाम से नही. परंतु उस संदर्भ मे बाद की खबरों का समाचार-प्रेषण करते समय ‘धम्मदीक्षा’ और धर्मचक्र प्रवर्तन’ को समानार्थी मानते हुये बेझिझक उपयोग में लाये गये. बाबासाहब ने 14 अक्तूबर 1956 के दीक्षा समारोह के उपरांत 15 अक्तूबर के भाषण में भी धर्मचक्र प्रवर्तन ऐसा नही काहा. दादासाहब गायकवाड को लिखे पत्र में भी उन्होंने ‘धम्मदीक्षा’ नाम की एक पुस्तिका के बारे जानकारी चाही/मांगी थी.

         ग. त्र्यं. माडखोलकर के प्रश्न का उत्तर देते हुए बाबासाहब कहते हैं, मैं स्वयं को भगवान बुद्ध जितना बड़ा समझता नही. मै एक छोटा मनुष्य हूँ. मैने विश्व को नवीन विचार नही दिया. मै इतना ही समझता हूँ की उनका वो धर्मचक्र इस देश में विगत हजार वर्ष से स्थगित होकर रह गया था, वो पूनः प्रवर्तित करने का अवसर मुझे मिला. बाबासाहब के उपरोक्त वक्तव्य में पुनः प्रवर्तीत इस शब्दजोडी का अर्थ पहले से शुरू हुये धर्मचक्र को गतिमान करना ऐसा है, उसको सटिक शब्द में ‘अन्वर्तन’ बौद्ध संकल्पनाकृत वैकल्पिक शब्द है.

         प्रवर्तन इस शब्द का अर्थ केवल गतिमान करना इतना ही मान लेते है तो धर्मचक्र प्रवर्तन कई बार एवं कोई भी कर सकता है, ऐसा अर्थ निकलेगा. किंतु क्या यह अर्थ उचित है? बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन यह केवल धर्मचक्र गतीमान करना ऐसा अर्थ का न होकर, प्राकृतिक धर्म के नियमों का स्पष्ट खुलासा करते हुये नवीन धर्म मार्ग की नींव स्वयं रखते हुये उसे गतिमान करना इस अर्थ का है. कारण धर्मचक्र का प्रवर्तन यह केवल एकही बार किया जा सकता है. दो बार, तीन बार, या अनेकों बार नही. इस बाबत स्पष्टोक्ती अंगुत्तर निकाय के चक्रवर्ती सूत्त में है. बुद्ध कहते है, हे भिक्खू ! यह सम्यक सम्बुद्ध अर्हत, तथागत, धार्मिक, धर्मराजा, धर्माधिपत्य पहरेदारी की व्यवस्था कर, धर्म से ही अनूत्तर धर्म-चक्र का प्रवर्तन करता है. इस धर्म-चक्र को लोक में न कोई दूसरा श्रमण न कोई ब्राह्मण न देव, न मार, न ब्रह्मा न कोई और प्रवर्तीत कर सकता है.”

आप गलती मानोगे या गलती दोहराते रहोगे?

         धर्मचक्र अनुवर्तन दिन को धर्मचक्र प्रवर्तन दिन कहकर हमने जो गलती की यह सत्य है, इसे नकारा नहीं जा सकता. किन्तु यदि हम इस गलती को स्वीकार नहीं करते तो प्रतिवर्ष एक दूसरी गलती दोहराते जाऐंगे और वह गलती होगी आषाढ पूर्णिमा के दिन धर्मचक्र प्रवर्तन नहीं मनाना‘.

        हमें गलती का एहसास हुआ और हमने मान भी लिया. इसलिए वर्ष 2014 से ‘धर्मचक्र प्रवर्तन दिन संदेश रैली’ का आयोजन करते आ रहे है. उसका अनुसरण भारत के अन्य राज्यों मे भी हो रहा है. और हाँ पूरे भारत भर जहाँ भी बौद्ध है उन्होने भी इसी दिन धर्मचक्र प्रवर्तन दिन मनाना चाहिए इसके लिए हम उनतक पहुंचने के भरकस प्रयास करेंगे. तब भी आपका वही सवालः इससे क्या होगा?

         इस प्रश्न का उत्तर है- बौद्धों मे पंथवाद, संम्प्रदाय की भावना को बढावा नही मिलेगा. क्योंकि, 1956 की दीक्षा भारत मे बौद्ध धर्म के पूर्नरूद्धार/जिर्णोद्धार या कायाकल्प की घटना है. किन्तु बुद्ध द्वारा दी गयी इस पूर्व 528 की दीक्षा यह बौद्ध धर्म के जन्म से संबंधित है, बुद्ध शासन के आरंभ की घटना है. बौद्ध धर्म का जन्म होने के कारण ही तो उसका पुनरूद्धार हो सका. इसलिए पुनरूद्धार का आनंद तो जरूर मनाना चाहिए.

       किन्तु इस मे जन्मदिन को शामिल करेंगे तभी वह आनंद द्विगुनित होगा. पूरे दुनिया के बौद्धजन आषाढ़ पूर्णिमा के दिन को ही धर्मचक्र प्रवर्तन दिन मानते है. किन्तु भारत मे महाराष्ट्र यह एक ऐसा प्रदेश है जहाँ धर्मचक्र प्रवर्तन दिनअक्टूबर माह में मनाया जाता है. यदि यही परंपरा जारी रही तो, दुनिया के बौद्धों से हम स्वयं को अलग मानना शुरू करेंगे. क्योंकि वैसे भी बुद्ध पूर्णिमा दुनिया भर के बौद्धों के लिए बडा उत्सव होता है.

        किंतु महाराष्ट्र में बौद्धों का सबसे बडा उत्सव 14 अप्रैल होता है. महाराष्ट्रीयन बौद्धों का दूसरा बडा उत्सव दशहरा (वि. दशमी) होता है; जब की दुनिया भर के बौद्धों के लिए वह उत्सव नही है. हालांकि जिस बाबासाहब के वजह से बौद्ध धर्म मे हम दीक्षीत हुए उनके सम्मान मे 14 अप्रैल को उत्सव मनाना लाजमी है. किंतु वह उत्सव बौद्ध धर्म के पुनरूद्धारक बाबासाहब इस रूप में नही होता है. भारत के प्रोटेस्टंट हिंदू (संवैधानिक भाषा में एस.सी.) को उनके मानवाधिकार दिलाने वाले महापुरूष के रूप मे उनका जन्मदिन मनाया जाता है.

       इसका मतलब, सीधा लाभपहुँचने/प्राप्त होने की भावना अधिक प्रबलता से हमारे मन में बसी है. बाबासाहब आम्बेडकर को, धर्मोद्धारक के रूप में जब तक हम नही देखते, तब तक हमारी धर्मभावना को एक तर्कवाद का आधार देने वाले बाबासाहब के रूप में उन्हें जान नही पायेंगे. बाबासाहब के गुरू बुद्ध और बाबासाहब को यदि हम हमारे गुरू मानते है तो हमे गुरू की बात भी माननी पड़ेगी. हमारे गुरू ने बुद्ध की बात मानने को कही थी, जो कहते है की धर्मचक्र का प्रवर्तन केवल एक बार होता है और उसे सम्यक संबुद्ध ही करते हैं. इसलिए बुद्ध की बात का सम्मान करते हुए 1956 की दीक्षा को धर्मचक्र अनुवर्तन कहे. यदि किसी को प्रवर्तन शब्द से अधिक लगाव हुआ है तो उसे धर्म प्रवर्तन (धर्म को गति देने वाला दिन) कहे. लेकिन जो एक और केवल एक मात्र धर्मचक्र प्रवर्तन का दिन (आषाढ पूर्णिमा) है उसे उसी जोश एवं शालीनता के साथ मनाएँ.

      आज भी हम स्वयं को बौद्ध इस धार्मिक पहचान के तहत निभाने वाली जिम्मेदारीयों से अनभिज्ञ है. इससे विपरित अपनी सामाजिक पहचान को ही अपनी असली अस्मिता मानने तक सीमित रहना चाहते हैं. बाबासाहब ने हमें पुरानी सामाजिक पहचान को लांघ कर, धार्मिक पहचान की ओर अग्रसर होने को कहा. 1956 की दीक्षा का यही अर्थ निकलता है. किन्तु हम जाना तो आगे चाहते है पर, सर पीछे की दिशा में मोडे और पैर आगे किए हुएँ है. इसी कारण ना हम ढंग से आगे जा पा रहे है और ना ही पीछे का रास्ता छोड़ना चाहते हैं.

लेख:- डॉ. विनोद अनाव्रत.  

पुस्तक:– धर्मचक्र प्रवर्तन कितनी बार? (भारती भाषा) 

पुस्तक:– धर्मचक्र प्रवर्तन आणि अनुवर्तन (मराठी भाषा) 

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